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लो फिर वसंत आई… या आया (2)

जागरण संपादकीय ब्लॉग
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नाइनटीन सिक्सटी नाइन की वसंत पंचमी। अवस्था पूरे चार साल आठ महीने। जिंदगी का खास दिन है। खास दिन का माहौल तो हफ्ते भर से ही बना है। बालमन हिलोरें ले रहा है। मकान नंबर 86/323, देव नगर, कानपुर की सुबह आज कुछ जल्दी हो चली। अम्मा ने आज कुछ खास तरीके से धोया (अम्मा हमें जो नहलाती थीं, वो धोने-पछाड़ने सरीखे होता था, ये प्रसंग काफी आगे)। ब़ड़ी दिद्दा (दीदी) ने ठीक से पोंछा-रगड़ा और छोटी दिद्दा ने ठह के संवारा, पीले रंग में रंगा कुर्ता और चूड़ीदार पायजामा, उसके ऊपर पीली सदरी या जैकेट, जिसे बड़ी दिद्दा ने ऊषा सिलाई स्कूल में पढ़ाई के दौरान प्रोजेक्ट के तहत सिला था, सिर पर टोपी, खरखराती हुई अंगुलियों से आंखों में काजल और माथे के कोने पर तीन टिकुली यानी अनखन, जिसके बाद नजर लगने की कतई गुंजायश न रह जाए। आज नाम के अनुरूप पूर्ण पीतांबरधारी थे। पूज्य बाबा ने नीचे बुलाया, उनके पांव छुए (प्रातकाल उठि कै रघुनाथा, मातु-पिता गुरु नावहिं माथा की व्यवस्था के तहत रोज बाबा के चरण स्पर्श का नियम था)। उन्होंने आपाद मस्तक देखा, मुस्कुराये, हल्की सी चपत लगायी, असीस दी। बाबा की बैठक में उनके साथ बैठे रहे। इंतजार हो रहा था, मुड़िया मास्टर का। आचार्य पंडित गंगा सागर अवस्थी उर्फ मुड़िया मास्टर। छोटकी बुआ यानी बुआ नंबर तीन के श्वसुर, जिन्हें हम बाबा कहते थे। कानपुर के मुड़िया लिपि या भाषा (मैं विश्वस्त नहीं हूं कि इसे लिपि कहें या भाषा) के यशस्वी कीर्तिलब्ध आचार्य थे वो। आढ़तों-व्यापारिक प्रतिष्टानों में उन दिनों लाल कपड़े की जिल्द चढ़े बहीखातों में सारे लेनदेन मुड़िया लिपि में ही दर्ज होते थे, हुंडियां (प्रामिसिरी नोट) और तगादे की चिट्ठियां (तकादे, तकाजे) भी इसी लिपि या भाषा में लिखी जाती थीं। हूलागंज, नयागंज, बिरहाना रोड, नौघड़ा, जनरल गंज, धनकुट्टी, शक्कर पट्टी, कलक्टरगंज, कोपरगंज, मनीराम बगिया, लाठी मोहाल होते हुए हालसी रोड तक मुडिया मास्टर के शिष्यों की सुदीर्घ श्रृंखला थी। खासकर मारवाड़ी और ओमर-दोसर वैश्य समाज के बीच उनका खासा सम्मान था, आदर था। बताते हैं कि वो अपने शिष्यों को फर्म के नाम से बुलाते थे, प्रत्येक फर्म उनके लिए कांस्टीट्वेंसी थी (जैसे एनडी तिवारी बतौर मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश विधानसभा में सदस्यों को नाम से नहीं बल्कि माननीय सदस्य फलां विधानसभा क्षेत्र के नाम से पुकारते थे।)। आढ़तों में आम तौर पर मुनीमत (बहीखाता दर्ज करने या लिखने वाले) करने वाले लोग ब्राह्मण होते थे। मुड़िया मास्टर की शिष्य मंडली में सभी थे। मुनीमत को व्यवसाय के तौर पर लक्ष्य साध चुके ब्राह्मण बटुक और भविष्य में अपनी आढ़त या व्यापारिक प्रतिष्ठान के संचालन की जिम्मेदारी निभाने वाले अधिसंख्य वैश्य युवा। उनके शिष्यों (लेकिन मुड़िया सीखने वालों में नहीं) की अपार संपदा में आज मैं भी एक घटक या अणु के तौर पर शामिल होने जा रहा था। दरअसल वो मेरी पाटी पुजाने के लिए आने वाले थे। आज विद्यारंभ संस्कार था। जीवन पथ पर ये अकादमिक वसंत की घड़ी थी। एक जातक के जीवन चक्र में ककहरा (अक्षर ज्ञान) की नई कोपल कुहुकने को थी। हम औपचारिक तौर पर सारस्वत होने वाले थे, कथित तौर पर ही सही सरस्वती के अर्चक, साधक।

वो आ गए। आज वो भी पीतांबरी थे। इकहरा बदन, टिपिकल ऐनक, हमेशा की तरह कांधे पर झोला और हाथ में छड़ी की मुद्रा में छाता। उनके छाते की गतिविधि एक खास रिदम, लय में होती थी। वो जब चलते तो पहले दाहिने हाथ की चारो अंगुलियों में छाते की मूठ को बैलेंस करते, अंगूठे से पकड़ साधते। इसके बाद छाता तीसरे पांव की भूमिका में आ जाता। एक कदम बढ़ता तो छाता आगे की सीध में ऊपर आते हुए शरीर से नब्बे अंश का कोण बनाता। दूसरे कदम में जीरो अंश के कोण में जमीन को स्पर्श भर करता और तीसरे कदम में पीछे जाते हुए लगभग एक सौ तीस या पैंतालीस अंश का कोण बनाते हुए, फिर धरती, फिर आगे। लय और ताल की कसौटी पर शरीर और छाता एकात्म हो जाते। शेष उनकी वास्तविक मुखाकृति के बारे में स्मरणशक्ति जवाब दे रही है। बाबा ने अपने समधी की आदरपूर्ण अगवानी की, हमने आशीर्वाद लिया। ऊपर जाकर संदेश पहुंचाया, बाबा (मुड़िया मास्टर) आ गए। संयोग से उन दिनों गांव से अजिया (दादी) और बड़ी अम्मा (ताई, वैसे बड़ी अम्मा वो भी होती हैं, जब पिता एकाधिक विवाह करें तो उनकी वरिष्ठ पत्नी। गांव-जवार में हमारी पीढ़ी तक ताऊ या ताई संबोधन नहीं पहुंचा था, सो बड़ी अम्मा को काकी भी कहते थे। पिता जी की बड़ी अम्मा या काकी हमारे लिए ककाइन अजिया होती थीं।) भी आई हुई थीं। आगत बाबा के स्वागत में अजिया जुट गईं। उनके वो रियल मान्यदान थे, बिटिया के श्वसुर यानी आदरणीय समधी। बाबा की मौजूदगी में जलपान के लिए अनिवार्य नियत छोटी सी कटोरी (इसकी भी एक कहानी है) में चीनी के चार छोटे से बताशे, लोटे में पानी और अलग से गिलास। बाद में अतिरिक्त नाश्ते के तौर पर बताशे से खाली हुई कटोरी में कोई आधा दर्जन फुलौरी (बेसन की पकौड़ी, जो कढ़ी में डाली जाती थी। जब भी कढ़ी बनती तो बोनस में सबको अलग से गर्मागर्म फुलौरियां पहले ही मिल जाती थीं।) दोनो बाबाओं के बीच कुछ औपचारिक वार्तालाप (हमारे बाबा न तो किसी से ज्यादा बातें करते थे और उनका व्यक्तित्व भी ऐसा था कि लोग उनसे ज्यादा बातें करने का साहस नहीं जुटा पाते थे।) और ऊपर से संदेशा आया कि दोनो लोगों को छत पर ले आया जाए।

धूप लकलक खिली हुई थी। टसर के सिल्क के एक रंग जैसी। मौसम के मौजूं सिल्क जैसी ही मुलायम लेकिन कलफ ऐसी कि ईशान कोण से मुखातिब हों तो थोड़ी सी चुभती हुई। जब खारिश लिए हुए फगुनहट फरफराये तो धूप सुहाये भी। ऐसी फगुनहट कि थोड़ी सी सर्दियाए तो बगैर रोयें (रोम) खड़े हुए रोमांच हो जाए। आसपास की छतों पर वासंती गहमागमही थी। होली की तैयारियों में नए आलू के चिप्स और नए चावल के पापड़ बन रहे थे, सूख रहे थे। पड़ोस की एक छत पर इस साल की पापड़ प्रक्रिया कुछ खास थी। पड़ोसी की बिटिया की शादी के बाद का पहला होलिकोत्सव जो था। सो बिटिया की ससुराल होली का बायन भी जाना था। पापड़ों की निर्माण कला में इनोवेशन की भरपूर संभावनाएं उड़ेली जा रही थीं। तरह-तरह के आकार वाले पापड़, पान के आकार वाले भी, तब पान का आकार दिल का प्रतीक समझा जाता था। ये आकार उन रसीले जीजा के लिए था जो शादी के बाद पहली बार होली खेलने ससुराल आने वाले थे। आलू या चावल के भर्ता (पेस्ट) के लंबे-लंबे सेव (दीर्घसूत्र, सेवंई को संस्कृत में दीर्घसूत्र ही कहते हैं शायद) निकाले जाते, फिर उनसे प्लास्टिक की पन्नी के कैनवस पर अल्फाबेट्स के अक्षर गढ़े जाते, जैसे SURESH या RANNO DEVI, हो सकता है कि ये होली में आने वाले जीजा जी का नाम हो या उन समधिन का, जिनके लिए बायन में अलग से टिपरिया जाने वाली है। कल्पना कीजिये कि ये अल्फाबेटिकल सेवनुमा पापड़ जब कड़ाही में गर्म तेल में तले जाते होंगे तो अपने नमकीन नाम को तलते हुए समधिन कैसे आल्हादित होती होंगी और खाते हुए किस तरह के चटखारे लेती होंगी। कुछ और छतों पर लाल-हरी भरवां मिर्च के ताजे अचार से भरे मर्तबान धूप दिखाये जा रहे थे। मूली, गोभी, गाजर और आंवले के कतरे नमक मिली कुटी हुई सरसों में बसाये जा रहे थे। पल-पल हवा कानों में खुसफुसाहट करती, उसकी खुश्क सर्द तासीर थरथरा भर देती, उसके साथ आई खट्टापन लिए हुए सरसों की झार नाक में पड़ोस की गतिविधियों की चुगली करके सड़क पार कर जाती, रायपुरवा चौकी (जो संभवतः 1971 में थाना बना) की तरफ। छतों के पिछले हिस्सों में गाय के गोबर के बल्ले भी पाथे जा रहे थे। अलग-अलग आकार-प्रकार के, उनमें बस एक समानता होती कि आकार को अंतिम रूप देने के बाद बीच में बड़े (दही बड़ा वाला बड़ा, DONUT) की तरह मध्यमा (अंगुली) से एक गोल छेद बना दिया जाता ताकि उन्हें सूखने के बाद बान (बांस की पतली रस्सी, जिससे खटिया भी बुनी जाती है) में पुहा जा सके। इन बल्लों की मालाएं होलिका दहन के दौरान होलिका को समर्पित की जाती थीं और एक माला बचा कर मोहल्ले के किन्हीं दलित बंधु से बदल कर उनसे होली (गले) मिला जाता। ये जिम्मेदारी भाई साहब और भाई जी की थी, जिसका निर्वाह करते हुए वो लोग हर साल मुंह बनाते, कभी-कभी तो आपस में मशविरा करके ‘फ्राड’ भी कर लेते। सांस्कृतिक अनुष्ठान के तहत सार्वजनिक होलिका दहन के बाद घर के आंगन में जो होली जलती, वो उन्हीं दलित बंधु के बल्लों से ही जलती, जो बदल कर घर लाई जाती थी।

लेकिन आज हमारी छत कुछ ज्यादा ही खास थी। अंग्रेजी के एल (L) का आकार बनातीं तीन आसंदी बिछी हुई थीं। दो संपार्श्व में और एक विषम पार्श्व में। नीचे कुशासन और उसके ऊपर ऊन का आसन। ये तथाकथित उन (कैशमिलान) के आसन अम्मा ने क्रोशिया से बुने थे, काले और पीले रंग के कांबिनेशन के साथ। आसंदियों के समक्ष अम्मा के द्वारा आटे से पूरा (आलेपित या चौक पूरना) हुआ चौक, चौक के बीच में रखा कलश। कलश में भरा हुआ गंगाजल। कलश का मुंह आम्रपत्रों से ढका हुआ, उसके ऊपर दीपदान। कलश से सटी हुई गौरा-पार्वती (मिट्टी के पांच टुकड़े, पहले चार संयोजित कर दिये जाते, पांचवां उनके ऊपर रख दिया जाता, पांचों पर सिंदूर की टिकुली, जिन्हें शायद गौरा-पार्वती कहा जाता)। उसके बगल में ईंटों से टिकाई गई वीणा बजातीं सरस्वती जी की फोटो (इन सरस्वती जी का चेहरा सविता दिद्दा से बहुत मिलता था। अक्सर मैं दोनो का आनुपातिक अध्ययन करता था। ये चित्र किन्हीं भगवान नामक कलाकार ने बनाया था, जिनका हस्तलिखित नाम फोटो के दाहिने कोने पर नीचे लिखा हुआ था।)। फोटो पर माला और समक्ष रखे हुए अमरूद में खुंसी हुई धूपबत्तियां। संपार्श्व आसंदियों पर हम और बाबा (मुड़िया मास्टर) अगल-बगल बैठे। हमारे बाबा विषम पार्श्व वाली आसंदी पर। सामने पल्ली (गेहूं या चीनी के जूट के बोरों को जोड़ कर बनाई गई एक तरह की दरी या बड़ा आसन) पर बैठी हुईं अजिया और बड़ी अम्मा, और भी बाकी लोग। बाबा (मुड़िया मास्टर) ने कुछ श्लोक बोलते हुए हमारे रोचना (तिलक) लगाया, फिर कुछ श्लोक हमसे दोहरवाये। उन्हें भाई जी ने एक नई पाटी सौंपी। आम की लकड़ी की ये पाटी आरा मशीन वाले बाबू राम तिवारी के यहां से खास तौर पर बनवाई गई थी। लगभग पांच इंच चौड़ी और नौ इंच लंबी। ऊपर कलात्मक मुठिया। उन्होंने पाटी पर रोचने से ही सतिया (स्वास्तिक) बनाई। उस पर अक्षत और गेंदा के फूल छिड़के। नन्हें हाथों में बड़े से आकार की खड़िया (चाक मिट्टी) थमाई, जो हमारे हाथ में उसी तरह से थी, जैसे पुलिस पर पथराव के लिए हाथ में थामा गया गुम्मा या अद्धा (ईंट का टुकड़ा)। उन्होंने अपने दाहिने हाथ से हमारे इस हाथ को थाम लिया। इसके बाद बोले चूल्हा, और वैसे ही हाथ थामे खड़िया से पाटी पर सबसे ऊपर कोने में बाईं ओर देखता हुआ चूल्हा (जैसे करवट लेकर लेटा हुआ अंग्रेजी का U) बना दिया। फिर बोले, एक और चूल्हा, इसके बाद उस लेटे हुए U के ठीक नीचे उससे सटा हुआ दूसरा लेटा हुआ चूल्हा बना दिया। फिर बोले, पूंछ, इसके बाद दोनो चूल्हों के पिछले संगम स्थल से एक पूंछ निकाली गई, हनुमान जी की तरह। फिर बोले चंद्रमा, इसके बाद ऊपर लेटे हुए चूल्हे के सिर पर अर्धचंद्र आसीन हो गया। फिर बोले बिंदी, इसके बाद अर्धचंद्र के ऊपर मध्य में एक छोटी सी बिंदी रख दी गई। कहने को खड़िया हमारे हाथों में थी लेकिन (सर्वशक्तिमान या प्रकृति की तरह) रच तो वही रहे थे। हमें आम मनुष्य की तरह ऐसी कोई गलतफहमी नहीं थी कि जो पाटी (नियति) में अभी तक रचा गया है, वो मेरा ही रचा हुआ है। उनके अगले आदेश की प्रतीक्षा में मैंने उनकी तरफ देखा, वो मुस्कुराये, पूछा, बताओ क्या बना? मैं तो पाटी और खड़िया से मोहाविष्ट। लेकिन थोड़ा संभला, पाटी को देखा और जवाब दिया ओम (ओंकार वाला ओम)। वो भी जोर से बोले ओम। उनका अगला आदेश, मुंह ख्वालौ (खोलो), मैने वैसा ही किया और उन्होंने एक छोटा सा शक्कर का बताशा मुंह में डाल दिया, फिर बोले- चलौ सबके पांए (पांव) छुऔ। हुलसित (उल्लसित) अजिया की गौनिहारी (मंगल गीत गायन) की धीमी-धीमी आवाज कानों में पड़ रही थी, बड़ी अम्मा शायद उनका साथ दे रही थीं। इस अवसर पर भी अजिया ने अपने प्रिय स्नेहिल पौत्र को असीस और ईश्वर से शुभकामनाओं के लिए कोई लोकगीत तलाश लिया था। हम विद्यार्थी हो गए। जीवन में एक नए वसंत का आगमन हुआ, जो काम का नहीं साम (हम लोग सामवेदी हैं) का प्रतिनिधि था, नवोत्पत्ति का हरकारा था। सारस्वत साधना का एक ऐसा वासंतिक भावबोध, दायित्वबोध सौंप दिया गया, जिसे संजोते हुए, संवारते हुए न केवल अपने भविष्य के तमाम वसंतों को प्रगति के सोपानों की तरह लक्षित करना था, बल्कि देश-समाज की वासंतिक अभिकल्पना-संरचना में योगदान का ये सांस्कृतिक-परंपरागत परमादेश था, (ये बात अलग है कि हम उसके पालन में कतई खरे नहीं उतरे) सिर्फ पाटी पूजन ही नहीं था ये।

 

 

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