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मध्याह्न और अपराह्न काल की संक्रांति। घर की समस्त चहल-पहल निस्पंद। दोनो कमरे गतिविधि शून्य। कोई स्कूल, तो कोई कालेज, तो कोई खेल के मैदान की तरफ। सिर्फ हम और अम्मा। सबको खिला-पिला कर अम्मा अब खुद चौके में अकेले खाना खा रही हैं और हम भैया (पिता जी) वाले कमरे में लोट लगा रहे हैं। ऊषा सिलाई मशीन का पहिया घुमा रहे हैं। पूजा वाली चौकी पे चढ़ के फिर उसके ऊपर से कूद रहे हैं, बार-बार, धम्म, धम्म। अकेलापन, हाथों-हाथ लिया जाने वाला घर का सबसे लघु किंतु लोकप्रिय प्राणी इग्नोरेंस फील कर रहा है। इसका प्रतिवाद करना है। ठुमक-ठुमक पीछे वाले कमरे से होते हुए छज्जा पार और चौके में दाखिल। अम्मा से बेहतर इस आगत के मनोविज्ञान को कौन समझ सकता था? उन्होंने कौर को अपने मुंह में करीने से बिठाया, तर्जनी थाली के एक सिरे पे छुआई और वैसे ही आगे बढ़ा दी। नन्हें-नन्हें हाथों से वो कर्मठ हाथ थामा गया, मुंह उस हाथ की बढ़ी हुई ऊर्ध्वगत तर्जनी की ओर बढ़ा। तर्जनी की पहली पोर पर लगा वो रसायन तालू पर पेंट हो गया। अम्मा के हाथ मुक्त, जीभ तालू से लगी, चट्ट-चट्ट, ये जीभ और तालू के संसर्ग-संगम से चटखारों का ध्वन्यांकन था। ऊं-ऊं, ईं-ईं (हिंदी का यम-यम)। जीवन का पहला प्रिय रसास्वादन। उस रसायन का नाम बुकनू था।
वो रसास्वादन बगैर सिखाये सीखी हुई शैशव सावधानियां भुला देता। चट्ट-चट्ट करते हुए चौके से कमरे को वापसी के दौर में पहला पांव पथरौटी पर पड़ता, धप्प, छप्प। पथरौटी में सिमटे हुए गंदले पानी की छिट्टियां चौके के भीतर अम्मा तक पहुंचती, निश्चित रूप से उनकी थाली में भी। उह्-हूं…, (तत्सम में ओ-ह्हो का थोड़ा संकुचित नकारात्मक दीर्घ-विलंबित स्वर) अम्मा की बस यही पल-छिन सीमित प्रतिक्रिया होती। पथरौटी माने हमारे उन दिनों के दो कदमों के ठुमुक-ठुमुक के क्षेत्रफल की वर्गाकार ललखऊं पत्थर की पटिया, जो चौके से ठीक बाहर छज्जे की सतह पर जड़ी थी। जिस पर रखकर अम्मा बरतन मांजतीं। बरतनों की नियमित मंजन प्रक्रिया के चलते सख्तजना पथरौटी के बीच थोड़ी गहराई हो गई थी और उस गहराई में हमेशा चुल्लू भर पानी जमा ही रहता था, जो हमेशा गंदला ही रहता था।
भैया वाले कमरे के जमीन पर फिर से लोटासन शुरू हो जाता। कमर में काले करगते ( समृद्ध करधनी का सर्वहारा बंधु) में बिंधे-पुहे चांदी के चंद्रमा, लाल मूंगे का नग, करिया गोटी और तमाम नकली मोतियां से खेलती हुईं अंगुलियों, चड्ढी को सरकाने-खींचने की प्रक्रिया, कमरे की छत पर मद्धम-मद्धम घरघराते हाहाहूती जीईसी (जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी) के पीले रंग के पंखे के घुमाव की चकरघिन्नी के साथ दौड़ लगाने की कोशिश करती आंखें कब पलक नेपथ्य हो जातीं। जब जगते (जागते) तो तालू में अवशिष्ट रसायन के रसास्वादन की प्रक्रिया भी जागती। अब स्वाद कम, उस रसायन का फ्रेंगरेंस महसूस भर होता। उस रसायन का नाम बुकनू था।
मोहल्ले की रामलीला में हनुमान जी का पार्ट अदा करते थे पंडित सीता राम सुकुल। वो रामलीला में गदा झटके से ऊपर उठाते और उसी झटके से उद्घोष करते जय श्री राम, हम सब जोर से उस उद्घोष का जवाब देते जय हनुमान। इस सामूहिक जवाबी उद्घोष की गूंज अनवरगंज स्टेशन से लेकर संगीत टाकीज तक गूंज जाती। पंडित सीता राम के कुछ घड़ी बड़े थे उनके (जुड़वां) भाई, जिनका नाम याद नहीं आ रहा। वो भी किसी क्षेपक प्रसंग में कोई एक दिन के लिए एक रोल करते। उनका रोल जोगिया भेस में सिर्फ एक गाने तक सीमित था, हाथ में खरताल लेकर गाते-जनम में लकड़ी, मरन में लकड़ी, देख तमासा लकड़ी का। थोड़ा नाक से गाते थे, इसलिए कई बार उनका कहा हुआ लकड़ी हमें नकड़ी की तरह सुनाई देता। हम अक्सर सोचते ये गाना बुकनू के लिए क्यों नहीं बन सकता? जनम में बुकनू, मरन में बुकनू, देख तमासा बुकनू का।
बचपन से ही दो तरह की बुकनू देखीं। एक रायपुर की और दूसरी रामसारी की। रायपुर हमारा गांव (पितृभूमि) और रामसारी हमारा ननिहाल (मातुल भूमि)। दोनो के बीच दूरी कोई दो-ढाई मील की, बस बीच में छांजा गांव पड़ता। रायपुर की बुकनू अजिया (दादी) की सक्रिय देखरेख में बनती और रामसारी वाली बुकनू नन्नो (नानी) के निर्देशकीय पर्यवेक्षण में। रामसारी की बुकनू थोड़ी साफिस्टिकेटेड होती। सूखी हुई हल्दी की मानिंद निखर पीले रंग की, एकदम महीन पिसी, मलमल की छानी हुई, एक भी रेशा-माशा नहीं। रायपुर की बुकनू, थोड़ी तेलखईं, अपेक्षाकृत मोटी-दरदरी और उसका कलर पानी में सीले हुए बबूल के चैले (लकड़ी का चिरा हुआ जलावन के काम आने वाल टुकड़ा) की तरह। पीले और काले के बीच का रंग। रामसारी में बुकनू चीनी की मिट्टी के मर्तबान में रखी जाती और रायपुर में बेहतर ढंग से पकी पालिश्ड भंड़िया (मृदभांड, मिट्टी का ढक्कनशुदा पात्र) में। कमाल देखिये, रामसारी की बुकनू का रंग मर्तबान के पीले रंग से सटीक मेल खाता और रायपुर की बुकनू का कलर उस भड़ियां के रंग से जोड़ लड़ाता। हां, एक बात समान थी, रामसारी के मर्तबान और रायपुर की भंड़िया, दोनो के ही गले में पता नहीं क्यूं, मफलर की तरह ढीली गांठ वाला एक कपड़ा बंधा रहता। अम्मा प्रभावित घर के सत्ता प्रतिष्ठान में रामसारी की बुकनू की ठसक थी। रायपुर की बुकनू विपक्ष में बैठती, अपोजीशन में। हर घर में बुकनू की किस्म का चलन बता देता था कि कौटुंबिक सत्ता प्रतिष्ठान में कौन पक्ष भारी है। इस घर में कौन सी व्यवस्था लागू है, मातृ सत्तात्मक या पितृ सत्तात्मक। बुआ लोगों के यहां जाते तो रायपुर की बुकनू मिलती और मामा-मौसी लोगों के यहां रामसारी की बुकनू। रामसारी की बुकनू चाटने के बाद अंगुली सफाचट्ट हो जाती लेकिन रायपुर की बुकनू अंगुली में अपनी पिलीतिमा का कुछ देऱ तक अस्तित्व बरकरार रखती। वैसे थीं दोनो बुकनू ही।
बुकनू की निर्माण प्रक्रिया का कार्यक्रम कई दिनों तक चलने वाला एक अनुष्ठान था। गांव में नउआ (नाऊ, नापित) बाबा के लिए कहा जाता, छत्तीसा यानी छत्तीस बुद्धि वाले। शास्त्रीय बुकनू में कुल 36 पदार्थों का समावेशन होता। कहा जाता कि बुकनू खाओगे तो बुद्धि भी उसी की तरह होगी। ये बात अलग है कि रायपुर वाले महीन बुद्धि वाले लगते और रामसारी वाले दरदरी बुद्धि वाले। बुद्धियां दोनो जगह जबर्दस्त थीं। रामसारी में नन्नो के निर्देशन में जो बुकनू बनती, उसकी निर्माण प्रक्रिया की मुख्य कर्ताधर्ता श्याम कुंआरी मौसी होतीं। कानपुर के नयागंज किराना मार्किट से नाना या नन्नो का कोई कारिंदा लिस्ट में लिखी हुई मात्रा के मुताबिक सामग्री लेकर रामसारी पहुंचता। मुख्य अवयव हल्दी और सेँधा नमक होते। हर्र, बहेर, जायफर, जावित्री, मुसलेंड़ी, पिपरामूर, कालीमिर्च, लौंग, ब़ड़ी इलायची, सौंफ, आंवला आदि-आदि। (जैसा कि जहां तक याद है) हल्दी, हर्र, बहेर जैसी चीजें पहले माठा (तक्र) में दो-तीन दिन भिगोयी जातीं, फूल के कुप्पा हो जातीं, गदरा जातीं, उनमें माठा पूरी तरह बस जाता। उसके बाद फिर सुखाई जातीं, खल्लर-कुटना (इमाम दस्ता) में कूटी जातीं, दरेती में दरी जातीं, फिर सरसों के तेल में भूनी जातीं। उसके बाद चकिया में पीसी जातीं। और भी चीजें कूटी-पीसी जातीं, मिलाई जातीं, छानी जातीं और जो आयुर्वेदीय रसायन तैयार होता, उसे बुकनू कहते थे। साल में एक बार बुकनू बनती। उसकी मात्रा इस बात पर निर्भर करती कि उसे कितने लोगों के बीच बंटना है। अजिया की वितरण लिस्ट में अम्मा-चाची-बुआ लोग होतीं और नन्नो की लिस्ट में अम्मा-मइयां (मामी) -मौसी लोग होतीं। तो इस तरह गांव-शहर में हर कुटुंब में दो तरह की बुकनू होती। एक अजिया वाली और दूसरी नन्नो वाली। उन दिनों सभी की अजिया और नन्नो हुआ भी करती थीं, उनका होना महसूस होता था, इस महसूसियत के पीछे तमाम कारकों में एक रसायन था. जिसका नाम बुकनू था।
छठी, बरहौं, मूल शांति, अन्न प्राशन, मूड़न (मुंडन), छेदन, जनेऊ, बरीक्षा, तिलक, बियाव (विवाह), गउना (द्विरागमन), रउना (त्रिआगमन या त्रिरागमन), तेरहीं, बरसी, छमछी, गयाभोज आदि, आदि। हर अवसर पर मौसमानुसार कोई भी पकवान-व्यंजन बनें लेकिन, बुकनू की उपस्थिति अनिवार्य। तीज-त्योहार कोई हो, पकवान-व्यंजन तिथ्यानुसार लेकिन बुकनू की हाजिरी जरूरी। आप गवर्नर हैं, लाट साहेब हैं, दावत में बुकनू नहीं तो सबकी नजर में दुइ कौड़ी के। बीस बिसुआ (बिस्वा) के चत्तू के तेवारी होंय या दुइ बिसुआ के धांकर, हर जगह 36 कैरेट की बुकनू मौजूद। करमराज चच्चू की शादी का किस्सा सुनाते हैं (वैसे इस अद्भुत शादी का प्रसंग कभी आगे जरुर लिखा जाएगा)। गांव-खानदान में पहला बियाव, जिसमें अगवानी के तुरंत बाद लड़की वालों के दरवाजे मेज-कुर्सी में खाना लगा। दरअसल पहले लड़की वालों के दरवाजे पर अगवानी के बाद नाश्ता ही मिलता था, लड्डू, पेड़ा, बर्फी, पेठा, परवल की मिठाई। उसके बाद बराती जनवासे लौटते, वहां लड़की वाले खाना लेकर पहुंचते, फिर पंगत बिछती, खाना परोसा जाता। लेकिन एक तरफ इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के बाद वहीं पर अध्यापन के प्रबल दावेदार विकासशील करमराज चच्चू और दूसरी तरफ उनकी प्रगतिशील राशन की कई दुकानधारी कांग्रेसी ससुराल, सो अगवानी-छाती पान (समधियों के बीच होने वाली एक रस्म) के बाद सभी लोग (जो विकासशील दूल्हे और प्रगतिशील ससुराल वालों के मुकाबले अविकसित देशों की श्रेणी में आते थे) मेज-कुर्सी पर बिठाये गए। एक मेज पर छह लोग, तीन इस तरफ और तीन उस तरफ। सेमी बुफे या बफे सिस्टम (जिसे उन दिनों बफैलो सिस्टम या गिद्ध भोज कहा जाता था) हर मेज पर स्टील का एक खांचेदार गोल घुमावदार स्टैंड। स्टैंड के हर तल पर फंसा हुआ चीनी की मिट्टी का एक सफेद डोंगा, किसी डोंगे में परवल या भिंडी की सूखी सब्जी, तो किसी में रसेदार सब्जी या छोले तो किसी में रसगुल्ला। बारी-बारी से एक-एक डोंगा उठाइये और अपनी प्लेट पर मनानुसार परोसिये। गर्मागर्म पूड़ी-कचौड़ी के लिए सफेद वर्दीधारी लाल टोपी लगाए बैरा हाथों में ट्रे लिए मेजों के इर्दगिर्द टहल रहे थे। मुल्लू चच्चू, फसड़ू के कान में कुछ फुसफुसाये, सलभद्दर भी फैलू से कुछ धीरे से बोले, बेदन भी कुछ कुनमुनाए। अंत में गांव की बिंदास हस्ती सिरी नरायन चच्चू ने पास से गुजर रहे एक बैरा को पास बुलाया। बोले, सुनौ यार, कीमखाब झाड़े एत्ते जने एत्ती देर से ऐसी-वैसी टहर रहे हौ, कोहू के दिमाग मा या बात न आई कि बुकनू तौ अबै तक परसी ही नहिं गै। यानी इतने लोग (बैरा गण) इतनी देर से इधर-उधर टहल रहे हो लेकिन किसी के दिमाग में ये बात नहीं आई कि अभी तक बुकनू परोसी ही नहीं गई। बैरा हकबक, बोला, अभी लाये सर और भविष्य में इस मेज की तरफ नहीं आने के मौन संकल्प के साथ निकल लिया। क्षणिक इंतजार के बाद सलभद्दर ने पास से निकल रहे दूसरे बैरे को पकड़ा, यार सुनौ बुकनू तो लाव। देखते-देखते सारे बैरे गायब, दरअसल हर मेज पर बुकनू की मांग हो चली थी। सारे बैरे, कैटरर के आसपास इकट्ठे, जनता-जनार्दन की बेहद मांग से पैदा हुई दिक्कत बतायी गई, पंजाबी कैटरर के मेन्यू में भला बुकनू कहां? चच्चू के होने वाले या होने की प्रक्रिया से गुजर रहे ससुर-सालों तक बात पहुंची, आनन-फानन में आस-पास के घरो से बुकनू इकट्ठा हुई और परोसना शुरू। पूरे पंडाल में एक बुकनुआत्मक लहर सी दौड़ गई, बुकनू, बुकनू, बुकनू। हमका देव, इनका देव, इधर देव, उधर देव, थोरी और देव। बगल वाली मेज पर जगदीश चच्चू बैरे को डांटते हुए बोले, अरे यार, चिम्मच से काहे छिरकि रहे हौ, हाथै से (हाथों से) काहे नहीं डर्तेव (हाथ से क्यों नहीं डालते)? उसने बुकनू की कटोरी मेज पर रखी और खिसक लिया। पूरी बरात हहरा के जुटी, पूड़ी-कचौड़ियां तोड़ी जाने लगीं। भोजनांत में पानी की टोंटी से हाथ धोकर डीसीएम की झक्क तौलिया से हाथ पोछते हुए दुल्लर चच्चू बोले बताओ, एत्ता बड़ा इंतजाम और सार बुकनू भूलिहि गे। सबने जोर से उनकी हां में हां मिलाई। ये उस बुकनू में ताकत थी, जिसने पूरी व्यवस्था को चुनौती दे दी थी। जिसके आगे शहर के नामख्यात पंजाबी कैटरर का ब्रांड घुटने टेक गया। इतना बड़ा शानदार इंतजाम, ढेर सारे व्यंजन और उसके मुकाबले में इक्कीस बैठता एक साधारण (या असाधारण) रसायन, जिसका नाम बुकनू था। (जारी)
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