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देख तमासा बुकनू का (2)

जागरण संपादकीय ब्लॉग
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छह फरवरी, 1988 का प्रसंग है। दद्दा की बरात बिदा हो के आई। छाबड़ा टूरिस्ट बस सर्विस की खटारा घरघरा के रुकी, तीन बार पों-पों-पों। अगल-बगल के छज्जों-छतों पर दर्शनाभिलाषियों का जमावड़ा। घर में चारो तरफ चहल पहल। एक-एक करके बराती बस से उतरे। मध्य प्रदेशस्थ उदरीय अधैर्य के शिकार छिद्दू बस की खिड़की से फांदे और चौतरा फलांग कर आंगन से होते हुए नारा मुक्त पाजामे को थामे धच्च से पाकिस्तान में दाखिल (शौचालय, जिसे हम लोग यूं तो आमतौर पर टट्टी किंतु मजाक में पाकिस्तान कहते।) । सरहद-ए-सदा यानी गलियारे से गुजरते कई लोगों ने पाकिस्तान के भीतर से सस्ती आतिशबाजी वाले बरसाती राकेट के छोड़ते ही उभरने वाली तरह-तरह की आवाजें महसूस कीं, बीच-बीच में बादल भी गड़गड़ाये। आंदोलित उदर और व्यग्र किंतु आड़ोलित प्रस्थान बिंदु (शरीर के इस भूभाग के बारे में अंदाजा लगाएं) के चलते छिद्दू मग्घे (प्लास्टिक का मग) में पानी भरे बगैर निष्पादन प्रक्रिया में संलग्न हो गए थे। जब उन्होंने अंदर से मिमियाती आवाजों में पानी का आह्वान किया तो चच्चू बड़बड़ाये, मना कर रहै रहन लेकिन सार जौन पाएस धांसत गा, धांसत गा, का बालूसाही औ का सिन्नी, अब झ्यालैं सरऊ। मैदा की लुचुई की तरह लचकीय काया के साथ छिद्दू पाकिस्तान से हांफते हुए बाहर आए। चाची ने अपने लाड़ले के हाथ-पांव धोआए, ऊपर ले गईं और उन्हें गुनगुने पानी के साथ बुकनू फंकाई गई। मध्य प्रदेश की अनियंत्रित हो चुकी कानून व्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए त्वरित कार्रवाई बल (रैपिड एक्शन फोर्स) के रूप में बुकनू तो मौजूद ही थी।
देखते-देखते सबके केआरआरए (की रोल रिस्पांसबिलिटीस एरिया) फिक्स हो गए। रामौतार चच्चू बस की छत पर चढ़े, कमले और मुल्लू नीचे सन्नद्ध, एक-एक करके दहेज का सामान उतारा जाने लगा। विभा की अम्मा की दिलचस्पी इसमें थी कि टीवी कलर है या ब्लैक एंड व्हाइट। कटियारिन चाची ने सीधे दद्दा से पूछ लिया, हीरो हांडा नहीं मिली? ज्ञाना बुआ पूजा की थारी और पानी भरी लोटिया ले के बस के गेट पर तैनात। उत्फुल्ल ननदें अपनी सिकुड़ी-सिमटी नई भौजाई को कौरिया के बस से उतार के देहरी तक ले आईं। मंदिर पुजाई हुई और लगे हाथ मड़वा (मंडप) भी सेरवा लिया गया। उधर गौनहरी के बीच बहुरिया की निहारन शुरू हुई औ इधर बुआ नंबर दो, भैया से शिकवा कर रही थीं, तुम तो कहत रहौ कि साफ है, बहुरिया के पायें देखि के तौ लागि रहौ है कि रंग काफी दबो है। भैया ने चश्मा दुरुस्त किया, अंपायर ई रामास्वामी की तरह उनकी अपील इग्नोर कर दी और थर्ड मैन बाउंड्री की तरफ देखने लगे। उन्होंने रामौतार चच्चू को बुलंद आवाज में निर्दश जारी किया जेत्ती डोलची, डलिया, बंसेलिया, भंड़िया औ टेपरिया हैं, सब ऊपर जइहैं। निहारन में मिले तुड़े-मुड़े नोट मुट्ठी में भींचे भौजाई अपने लिए नियत कमरे में दाखिल करा दी गईं। ननदें उनसे बक्से की चाभी मांग रही हैं और वो न देने के लिए चाभी ढ़ूंढ़ने का उपक्रम कर रही हैं। कभी कमरबंद के इर्द गिर्द टटोलती हैं तो कभी हाथ ऊपर लाकर…। बगल में बड़े वाले कमरे में अदालत लगी हुई है। श्वेतकेशी वेटेरन महिला समुदाय आयकर टीम की तरह समधिन की टिपरिया के छिद्रान्वेषण में व्यस्त है। सनील के बटुआ, रामपुरी सरौता, कलकतिया सिंदूरदान, फिरोजी चूड़ियों का ललखऊं डिब्बा, कन्नौज के केव़ड़िया गुलाब पत्ती गट्टा, लकड़ी की नन्हीं-मुन्नी इतरदानी में हिना, चमेली, जबाकुसुम की छोटी-छोटी शीशियां, खपच्ची की पिटरियां, बनारसी लहंगा औ जार्जेट की साड़ी। बुआ ने चाची की चुहल की, भौजी! मुंह दिखाई के बुलउवा मा लहंगा पहिन के नचिहौ ना। किसिम-किसिम की सास बैठी हैं औ चाची सरमा गईं। इसके बाद मृदभाडों की बारी। एक-एक भंड़िया टटोली जाने लगीं। भ़ंड़ियों से आटे की लोई की पैकिंग उतारी जा रही है। भड़ियों पर लिखी गारी (गालियां) पढ़ी जा रही हैं। समधिन ने समधिन के लिए कुछ संदेस भी लिखे हैं और अपनी कल्पना के मुताबिक सिर्फ लहंगा और कंचुकीशुदा समधिन का एक खजुराहोनुमा चित्र भी उकेरा है। चटको अजिया धीरे से बुदबुदाईं, दहिजार। भड़ियों में कसरायन था, बूरा था, नुक्ती थी। आयकर टीम का सर्वे तो खत्म हुआ लेकिन सबके चेहरे, हाव-भाव असंतुष्ट। किसी की नाक तो किसी भौं सिकुड़ी हुई। निंबियाखेरे वाली बुआ से रहा नहीं गया, दौड़ी-दौड़ी बगल वाले कमरे में धंसीं और उलाहना देती हुईं, नवागत वधु से बोलीं, दुलहिन का तुम्हरे हेन बुकनू नहीं खाई जात? दो-तीन और कमेंट हुए, ई गंगापारी, बुकनू खाब का जानैं। हमरे हेन तो धांकरौ (कम बिस्वा वाले कनौजिया) बुकनू खात हैं। बेटे की ससुराल से आई समग्र व्यंजन सामग्री के समूह से बुकनू नामक पदार्थ नदारद था और यही महत्वपूर्ण अहम अभाव समधियाने के संस्कारों की चीरफाड़ का सबब बन गया। बुकनू के अभाव में समधियाना संस्कारहीन साबित हो गया। जाहिर है कि इसके चलते नववधु के भी कुछ नंबर कट गए, जिन्हें दोबारा उपार्जित करने के लिए उसे भविष्य में सासुओं के समक्ष अतिरिक्त उपक्रम करने होंगे। बुकनू न हुई, कैरेक्टर सार्टीफिकेट हो गई।

पंडित दातादीन चिकित्सालय के तनहा स्वयंभू सीएमओ गदाधर मिश्र, बीएएमएस, आयुर्वेद विशारद। जो क्लीनिक के बोर्ड के मुताबिक डाक्टर और अपने मरीजों की जुबान पर बैद जी थे। उनकी अंगूठा छाप पत्नी बैदाइन हो चली थीं और वो भी अपने पति परमेश्वर को बैद जी कहकर ही पुकारती थीं, ये बात अलग है कि वो अकेले में कई बार टोकी जा चुकी थीं, कित्ती बार कहो है तुमते कि डाक्टर साहेब कहो करौ। गदाधर दुबौली थे। निहायक फार्मल मामलों में ठेठ कनौजिया बोलते और मरीज से ठेठ लंठ खड़िहा के बोलते। कुर्सी पर बिछी रुई की गद्दी पर अर्ध वज्रासन, उनका प्रिय बैठासन था। सामने मेज पर मेजपोश के रूप में हैंडलूम का वो कपड़ा जो करघे पर पर्दे के लिए बुना गया था। हेक्टर के स्टेथोस्कोप (आला), स्टार के ब्लड प्रेशर इंस्ट्रूमेंट, स्टील की चम्मचनुमा जीभी (जिसे मरीजों के मुंह में डालकर जीभ का जायजा लिया जाता), प्रभात कंपनी के किरासिन स्टोव और उस पर सिरिंज उबालने के लिए स्टील के टोपिया (भगोना) जैसी उन तमाम सामग्रियों के साथ ही वह मेजपोश भी पंडित दातादीन चिकित्सालय में उद्घाटन समारोह से ही उपस्थित था। इन सभी सामग्रियों पर अवस्था-आयु का असर-अंदाज दिख रहा था। अंदाज नहीं बदला था तो डाक्टर गदाधर मिश्र का। अखबार पढ़ते-पढ़ते वो सामने बांयें-दांयें बिछी लंबवत बेचों पर बैठे बेरोजगार खलिहा अनामंत्रित आमंत्रितों से मुखातिब होते, द्याखौ यो चरन सिंह याकौ दिना पार्लियामेंट नहीं गा लेकिन व्हन जौन पीतर केर पाटी लागि है, ओम्हा जीवनभर खातिर नाम लिखवा लीन्हेस। इंदिरा जी केर माया है, जनता पार्टी वाले सार आपस मा लड़ि-भिड़ि के छिया-बिया (तितर-बितर) हुई गे और ई जौन बड़े भारी किसान नेता हैं, इंदिरा जी की कठपुतरी की नैयां कमर मटका रहे हैं। कांग्रेसी विचारधारा से ओतप्रोत, चुनाव के दौरान गाय-बछड़ा के पोलिंग एजेंट और नेहरू निधनोपरांत उनकी बेटी के अंधभक्त पंडित गदाधर की इच्छा-अपेक्षा के विपरीत कांख से कांखता और सीने से हांफता कोई मरीज दाखिल होता, फिर पंडित गदाधर एफआरसीएस डाक्टर हो जाते।
क्या प्राब्लम है?
मरीज-आयं?
दरअसल वो प्राब्लम का मतलब नहीं समझता था।
क्या दिक्कत है?
मरीज-बैद जी, बुखार तो उतरि गा, अब कान मा सनसनाहटौ नहीं होति, मूड़ पिराबौ (सिरदर्द) कम हुइगा है।
बैद जी- तो व्हाट इज प्राब्लम?
मरीज-जीभ नहीं उतरी, कौनो स्वादै नहीं आवत, जी अरसात है पर कुछौ नीक नहीं लागत।
बैद जी-दरअसल ये एंटीबायटिक का रियेक्शन है। सबके साथ ऐसा ही होता है। थोड़ा गंभीर होते हुए वो बताते, ऐसा करना, कोयले की आंच में नींबू की फांक को धीरे-धीरे सेंकना, उसके बाद फांक के ऊपर बुकनू मलो, फिर उसे इत्मीनान से चाटो। दो-तीन बार करोगे तो टेस्ट लौट आएगा।
..और डाक्टर गदाधर मिश्र का वो फार्मूला आज भी अचूक है। दुनिया भर की तमाम दवा कंपनियों और उनके रिसर्चर्स ने तमाम बीमारियों के नुस्खे तलाश लिए लेकिन बदनतोड़ बुखार या माइग्रेन के बाद की बेस्वादी का बुकनू से बेहतर कोई तोड़ नहीं। मरे हुए स्वाद को जिलाने में बुकनू का कोई जोड़ नहीं। रसना की रसकामना है बुकनू। जिह्वा की जिजीविषा का जंतर है बुकनू। अनुपलब्ध आस्वादन की स्थिति में मुखसंतुष्टि का मंतर है बुकनू। (जारी)

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