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अखबार में एक फोटो देखा। पहली नजर में किसी धार्मिक अनुष्ठान का लगा। उत्सुकता जगी। कैप्शन यानी फोटो परिचय देखा। पहले तो भरोसा ही नहीं हुआ। दोबारा पढ़ते-पढ़ते मेमोरी बैंक भी एक्टिव हुआ। जो पढ़ा वो भी सच था और फोटो में जो देखा वो तो सच था ही, आखिर फोटो झूठ थोड़े ही बोल सकता है। तभी अपन के व्यवसाय में एक कहावत कही जाती है कि एक फोटो हजार शब्दों के बराबर। दूसरे दिन फिर वैसा ही फोटो देखा, कैप्शन देखा और खबर भी पढ़ी। इसमें भी सच को झुठलाने की कोई गुंजायश नहीं थी, एक फीसदी भी। लेकिन वो सच जो दिख रहा है या था, वो सच लग नहीं रहा है या था। वो पवित्र सच के पवित्र चीवर में लिपटा हुआ एक अपवित्र झूठ लग रहा था, वैसे मैं अभी भी ये कामना कर रहा हूं कि वो सच ही साबित हो, अभी नहीं तो दो दिन बाद ही सही।
भूमिका के बाद कथानक पर आता हूं। दरअसल वो फोटो हमारे एक पड़ोसी सैनिक जनरल का था। वो आजकल हमारे देश के राजकीय अतिथि हैं। जनरल थान श्वे, म्यांमार के सीनियर सैनिक जनरल, सैनिक राज्याध्यक्ष या सच्ची-मुच्ची में पूर्ण सैनिक वर्दी में एक तानाशाह। जिन्हें हम सम्मान से सैनिक शासनाध्यक्ष कहते हैं। फोटोग्राफ्स की लोकेशन थी पहले दिन गया और कुशीनगर, दूसरे दिन सारनाथ। गया जहां तत्कालीन सिद्धार्थ को बोध हुआ, सत्व और सत्य से साक्षात्कार हुआ, जहां राजकुमार सिद्धार्थ, बुद्ध हुए। कुशीनगर, जहां भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को परम प्रवचन देते हुए महानिर्वाण लिया और सारनाथ, जहां उन्होंने पहली बार अपने पांच प्रमुख शिष्यों को उपदेश दिया। उन्हें सत्य का बोध तो गया में हो ही चुका था, सारनाथ में वह गुरुवत हो गए। बहरहाल, अखबारों में छपे फोटोग्राफ्स में दिख रहा था कि वो यानी थान श्वे, सपरिवार, पत्नी, चार पुत्री और एक पुत्र सहित, बौद्ध अर्चना कर रहे हैं। वो नितांत शांतस्थ-ध्यानस्थ दिख रहे थे, उनके अगल-बगल भी लोग उसी मुद्रा में सन्नद्ध थे और कोई बौद्ध भिक्षु कुछ अनुष्ठान जैसा करते दिख रहे थे। ध्यानस्थ मंडली और बौद्ध भिक्षु के बीच में कोई प्रतिमा और मंडप जैसा दिख रहा था, मैं कल्पना कर सकता हूं कि मूर्ति तो शायद भगवान बुद्ध की ही रही होगी। शायद इसलिए कि कैमरे का फोकस राजकीय अतिथि पर ही था। ये सब घटित हुआ, तभी फोटो में दिखा और तभी समाचारों में भी लिखा गया, हमारे समाचार पत्र में भी। सो, हम उसे कैसे झुठला सकते हैं लेकिन ना, ना भई ना, वो तो एक झूठ लग रहा था, कतई झूठ लग रहा है, वैसे मैं अभी भी कामना कर रहा हूं कि वो सच ही साबित हो, अभी नहीं तो दो दिन बाद ही सही।
खबरों में बताया गया कि जनरल थान श्वे ने भगवान बुद्ध की अर्चना करते हुए म्यामांर यानी अपने देश और पूरी दुनिया में शांति की कामना की। खबरों में ये भी बताया गया कि जनरल ने तथागत की आराधना करते हुए म्यामांर और पूरी दुनिया के लिए समृद्धि की कामना भी की। उन्होंने कुशीनगर में म्यामांरपोषित-संरक्षित बौद्ध मंदिर के साथ ही उस बौद्ध तीर्थ के विकास के लिए भी यथासंभव मदद का भरोसा दिलाया। हो सकता है कि उन्होंने ऐसा ही सारनाथ में भी किया हो। बताया गया कि वो बौद्धस्थलों का विकास इसलिए चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा लोग बौद्ध तीर्थस्थलों में पहुंचे और बुद्धं शरणं गच्छामि हों। चूंकि खबरों में ऐसा कहा गया था इसलिए इसे सच मानना चाहिए और पड़ेगा। वैसे ये एक परंपरा है कि जब भी कोई राष्ट्राध्यक्ष, राज्य प्रमुख राजघाट-शांति स्थल जैसे भौतिक स्मारको से लेकर कुशीनगर या सारनाथ जैसे आध्यात्मिक केंद्रों में जाता है, तो वो ऐसा ही कहता है या खबरों में ऐसा ही लिख दिया जाता, भले ही उन्होंने कहा न हो, कामना न की हो। ये कूटनीतिक पत्रकारिता की एक परंपरा है, उसी तरह जैसे ईद की नमाज की खबर में ये लिखा जाता है कि पूरे मुल्क में अमन-चैन की दुआएं मांगी गई और दशहरे की खबर में लिखा जाता है कि पूरे देश ने बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न मनाया या भ्रष्टाचार रूपी रावण के संहार का संकल्प लिया। तो ये वैसे ही दुआएं मांगी जाती हैं, जश्न मनाया जाता है, संकल्प लिया जाता है,जैसे सीनियर जनरल थान श्वे ने भगवान बुद्ध से म्यांमार सहित पूरी दुनिया में शांति के लिए कामना की और पूरी दुनिया को बुद्धं शरणं गच्छामि के वास्ते कुशीनगर को बतौर पर्यटक स्थल विकसित करने में मदद का भरोसा दिलाया। उनके भरोसे पर अपने मन को भरोसा तो नहीं दिला पा रहा फिर भी मैं ये कामना कर रहा हूं कि जनरल थान श्वे ने सच्चे मन से कामना की होगी। और, अगर उन्होंने सच्चे मन से कामना की होगी तो भगवान बुद्ध उनकी सुनेंगे, उन्हें अपनी शरण में लेंगे, जैसे उन्होंने कलिंग संहार के बाद अशोक या नर वधिक अंगुलिमाल को अपने शिष्यत्व में लिया था।
एक कल्पना करते हैं। जनरल थान श्वे, भगवान बुद्ध के समक्ष आंख मूंदे ध्यानस्थ पद्मासने संस्थितां हैं। बौद्ध विहार के प्रमुख भिक्षु मंत्रोच्चार कर रहे हैं। तुरही जैसे वाद्य की मंद-मंद ध्वनि गूंज रही है। ताल वाद्य पर हौले-हौले थाप पड़ रही है। प्रतिमा समक्ष सुलगते अगरगुच्छ से घुमड़ता धूम्र दल वातावरण को सुवासित कर रहा है। प्रज्ज्वलित मोम शलाकाओं की पांत आस्था को क्रमबद्ध अनुशासित कर रही है, प्रेरित कर रही है। सब मंत्रों को सुन रहे हैं, गुन रहे हैं, शायद जुंटा प्रमुख जनरल थान श्वे भी। आखिर एक बौद्ध विहार या बौद्ध मंदिर में होने वाले मंत्रोच्चार का अभीष्ट क्या होगा? अहिंसा परम धर्म, जीवों पर दया करो, किसी को न सताओ, सभी को बराबर समझो, शांति की सुरसरि बहाओ, वगैरह-वगैरह। मन सोचने को बाध्य करता है कि उन मंत्रों की जनरल के मन में कैसी प्रतिक्रिया हो रही होगी? उस वक्त उन्हें आंग सान सू की, की याद आ रही होगी,जो वैधानिक तरीके से चुनाव जीतकर भी बरसों से अवैधानिक रूप से नजरबंद हैं, एकमुश्त छह साल से और कुल मिलाकर डेढ़ दशक से भी ज्यादा। भगवान बुद्ध के समक्ष नतमस्तक जनरल थान श्वे के जेहन में उन राजनीतिक विरोधियों के चेहरे उतरा रहे होंगे, जिन्हें उन्होंने बगैर किसी अभियोग के जेलखानों में कैद कर रखा है। पवित्र मंत्रोच्चार की ध्वनि के मध्य इस शांतिकामी जनरल के कानों में उन विधवाओं का रूदन गूंजा होगा, जिनके पतियों ने, एकक्षत्र राज्यतंत्र जुंटा का शांतिपूर्ण विरोध करने की कीमत जान देकर चुकाई। क्या अनुष्ठान के बीच बजते तालवाद्यों के निनाद में उन नौनिहालों की सिसकियों के लिए कोई कोना बचा होगा, जो सैन्य शासन की शांति प्रक्रिया के चलते अनाथ हो गए, अपने संरक्षकों-अभिभावकों को खो बैठे। क्या ध्यान आवेशित मुंदी हुई सैन्य आखों के अंतरपटल पर पीठ से चिपके हुए पेट वाले वो निरीह नागरिक ओझल होते ही सही, दिख रहे होंगे, जो जुंटा शासन की कृपा से राशन में मिलने वाले मुट्ठी भर चावल से किसी तरह दस दरवाजों वाले रंग महल में आत्मा को किसी तरह सहेज कर रखे हैं। मुझे तो गया, कुशीनगर और सारनाथ में मध्य म्यांमार का वह क्षेत्र दिख रहा है जहां पुरातन बौद्ध आनंद विहार अवस्थित है। मेरे कानों में तालवाद्यों की ध्वनि तेज दर तेज होती जा रही है और अचानक वह जुंटा शासन के भारीभरकम टैंकों की गड़गड़ाहट में तब्दील हो जाती है, जो शांतिकामियों को धमकाते राजधानी यंगून की सड़कों को रौंद रहे हैं। मुझे तो अगर गुच्छ से घुमड़ता वो धूम्रदल उस आंसू गैस के गोले से निकली गैस में तरमीम होता लग रहा है, जो पलटकर आंदोलनकारियों ने गुस्साये सैनिकों की तरफ फेंक दिया है। टियर गैस के उस शेल से निकल रही रुलाने वाली गैस सर्पाकार गति से सड़कों पर लोट पोट हो रही है। मुझे तो देव की कांस्य प्रतिमा के समक्ष कतारबद्ध मोम शलाकाएं उन सैकड़ों मशालों की तरह लग रही हैं जो म्यांमार की विभिन्न दिशाओं से राजधानी की तरफ बढ़ रही हैं, जो जीने की आजादी और बुनियादी मानवाधिकार की चाहना रखने वाली अभिव्यक्ति का प्रतिनिधित्व कर रही हैं, मुझे लग रहा है मशालधारकों का नेतृत्व स्वयं तथागत कर रहे हैं, वो लगातार बढ़ते जा रहे हैं, उनके अनुचर, अनुगत अनुयायियों की संख्या बढती जा रही है।
एक और कल्पना करते हैं कि जब विद्वान बौद्ध भिक्षु अपने राजकीय यजमान को शांति, क्षमा, करुणा और दया के देवता के समक्ष बिठा कर मंत्रोच्चार कर रहे होंगे तो उन भिक्षुओं के भी मन में कुछ खदबदा रहा होगा कि नहीं? क्या विद्वान भिक्षु मन ही मन भगवान से ये प्रार्थना कर रहे होंगे कि देव, 48 बरस से अपने मुल्क में सत्य और सत्व को रौंद रहे इस शख्स को मानव बना दो, ताकि म्यांमार में सिसक रहे मानवाधिकार के मुखमंडल पर एक हल्की ही सही स्मित रेखा दर्शनीय तो हो। क्या विद्वान भिक्षु को ये संताप नहीं ताप रहा होगा कि काश कम से कम ऐसा अवसर तो मेरे खाते में नहीं आता जब हजारों भारतीय-चीनी अल्पसंख्यकों के सफाये को जिम्मेदार एक व्यक्ति के लिए हम भगवान से सुनियोजित-प्रायोजित प्रार्थना कर रहे हैं। क्या हम ये मानकर चलें कि जिस म्यांमार के बारे में आम जिज्ञासु काफी कुछ जानता-समझता है, उस मुल्क के हालात के बारे में विद्वान बौद्ध भिक्षु अनजान होंगे। लेकिन हम अपने मन को ये कह कर दिलासा दे लेते हैं कि ये भिक्षु परंपरा तो उस महान आध्यात्मिक मंजूषा की अध्येता है, जिसमें कहा जाता है, पाप से घृणा करो पापी से नहीं। सच तो नहीं लगता लेकिन हम कामना करते हैं कि ये सच ही हो और वो विद्वान भिक्षु एक नए अशोक, एक नए अंगुलिमाल के अवतरण की शुभकामना कर रहे हों।
एक कल्पना और करते हैं, अगर आज गया, कुशीनगर या सारनाथ में साक्षात तथागत उपस्थित होते? यद्यपि तथागत, तथागत हैं, वह गत या विगत नहीं हैं, हमारे आसपास ही हैं, लेकिन हम उन पूर्व सिद्धार्थ, निस्पृह स्थितिप्रज्ञ भगवान बुद्ध की कल्पना कर रहे हैं, जिनके तमाम आख्यान बचपन से पढ़ते आए हैं। वह सारनाथ में अपने शिष्यों संग विचरण कर रहे हैं, कुशीनगर में विहार कर रहे हैं, तभी जनरल थान श्वे, उनके दर्शन की अभिलाषा लिए उनके सान्निध्य को प्रस्तुत होते हैं। म्यांमार के एकमात्र श्रमिक जनरल थान श्वे, उन्हें अपनी मेहनत की कमाई से अर्जित चीवर भेंट करते हैं या करना चाहते हैं। म्यांमार के एकमात्र अधिकृत उद्यमी जनरल थान श्वे, उन्हें अपने व्यवसाय से अर्जित स्वर्ण मुद्रा भेंट करते हैं या करना चाहते हैं। म्यांमार के एकमात्र अधिकृत व्यवसायी जनरल थान श्वे, उन्हें अपने व्यबल से अर्जित एक मूल्यवान हीरा भेंट करते हैं या करना चाहते हैं। म्यांमार एकमात्र अधिकृत शिल्पकार जनरल थान श्वे, उन्हें एक अलभ्य-दुर्लभ पत्थर से बना भिक्षा पात्र भेंट करते हैं या करना चाहते हैं। ऐसे में भगवान बुद्ध क्या करते? उनकी प्रतिक्रिया क्या होती? उनके उपदेश के तथ्यबिंदु क्या होते?
एक कल्पना और करते हैं, भगवान बुद्ध अपनी शिष्य मंडली सहित अरुणाचल में विहार-विचरण करते हुए भारतीय सीमा से जुंटा शासित म्यांमार की सीमा में दाखिल हो जाते हैं। वो लगातार भ्रमण पर हैं। लोग उन्हें विस्मय से देख रहे हैं, कुछ संकोच और कुछ भय से विचलन के बावजूद लोग बुद्ध के नजदीक आ रहे हैं। आक्रांत लोगों को बुद्ध का स्नेह स्पर्श स्वर्गिक अनुभूति दे रहा है। लोग पहली बार देश में किसी को सहज स्वाभाविक मुस्कुराहट के साथ देख रहे हैं। बुद्ध जगह-जगह भ्रमण को स्थगन देते हैं, उस दौरान उपदेश भी देते हैं हिंसा से बड़ा कोई पाप नहीं, जीवों पर दया से बड़ा कोई धर्म नहीं, समरसता से बड़ी कोई राजनीति नहीं, सहज शांति व्यवस्था से बड़ी कोई समृद्धि नहीं, आत्मिकता से बड़ा कोई सत्य नहीं। लोग भगवान के विचारों से प्रभावित हो रहे हैं। चारो तरफ उनके उपदेशों की चर्चा हो रही है। उनके अनुयायियों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। एक-एक करके उनके विहारों की स्थापना हो रही है। विचार स्वातंत्र्य की अलख जग रही है। लोग सत्य और धर्म का वास्तविक मूल और मूल्य समझ रहे हैं। एक विचारवीथिका के तले एकजुट हो रहे हैं। तभी जुंटा के खुफियातंत्र को इसकी भनक लगती है। तथ्य जुटाये जा रहे हैं, रिपोर्ट्स बन रही हैं। रिपोर्ट्स जल्द से जल्द यंगून पहुंचाई जाती हैं। जुंटा के मुख्यालय में रिपोर्ट्स की सत्यता परखी जाती है और फिर उसके निष्कर्ष सीनियर जनरल थान श्वे तक पहुंचाये जाते हैं। अब मेरे साथ आप भी कल्पना कीजिये कि क्या होता? सत्य का क्या होता, सत्व का क्या होता और धर्म का क्या होता? हां, देश-विदेश या अंतरराष्ट्रीय पन्ने पर एक सुर्खी बनती। म्यांमार में सत्य गिरफ्तार, सत्व नजरबंद। अमेरिका उस घटनाक्रम की कड़ी आलोचना करता। पश्चिम के कई मुल्क अमेरिका के सुर में सुर मिलाते। भारत सधे हुए शब्दों में बुदबुदाता। चीन कोई शाब्दिक प्रतिक्रिया व्यक्त करने के बजाय म्यांमार के साथ एक और नौ सैन्य युद्धाभ्यास का मुखर मौन निर्णय करता। दबी हुई सी खबर आती कि चीन के दो युद्धपोत म्यांमार की तरफ बढ़ते हुए देखे गए। संयुक्त राष्ट्र संघ में एक प्रस्ताव पारित होता। म्यांमार की निंदा में 37वां प्रस्ताव पारित हो जाता। महासचिव बान की मून शांति दूत के रूप में म्यांमार पहुंचते। लेकिन इस प्रकरण का समापन इस तरह की एक खबर के साथ हो जाता कि बान की मून को जुंटा शासन ने सत्य और सत्व से मिलने नहीं दिया और वह निराश मन जेनेवा लौटने से पहले शांति प्रार्थना के लिए बोध गया पहुंच रहे हैं।
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