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मैं उनको सुबह लाल किले की भव्य प्राचीर से कुछ बोलते हुए सुन रहा था। कभी-कभी लग रहा था कि वो बुदबुदा रहे हैं और साउंड सिस्टम के एम्प्लीफायर के सौजन्य से बोलते हुए लग रहे हैं। वो शायद बुदबुदाने के अभ्यस्त हैं, आदी हैं, इसलिए ऐसा भी लग रहा था कि बोलने के लिए उन्हें एक्स्ट्रा एनर्जी की जरूरत पड़ रही है। बीच-बीच में ऐसा भी लगा कि इनवर्टर की बैटरी बोल गई है और एक्स्ट्रा एनर्जी का स्रोत जवाब देने लगा है। पूरब की हवा का जोर होता तो उनकी आवाज परेड ग्राउंड से होती हुई जामा मस्जिद की तरफ बह निकलती और हवा थोड़ा दक्खन-पछुआ रुख लेती तो एम्प्लीफायर सिस्टम के सपोर्ट के बावजूद कुछ घरघराता सा लगता। ऐसा लग रहा था कि चूंकि वो इस मुल्क के प्रधानमंत्री बना दिये गए हैं, इसलिए बोल रहे हैं। ऐसा भी लग रहा था कि वो बनाये हुए प्रधानमंत्री हैं, इसलिए वो जो बोल रहे हैं, वो बना-बनाया हुआ है। ऐसा भी लग रहा था कि 15 अगस्त के दिन इस मुल्क के प्रधानमंत्री को लाल किले की प्राचीर से बोलना ही होता है, इसलिए वो बोल रहे हैं। कभी-कभी ये भी लग रहा था कि वो जो बोल रहे हैं, वो उनसे बोलने को कहा गया है, इसीलिए बोल रहे हैं। दरअसल वो बोल भी नहीं रहे थे, कोई स्वतःस्फूर्त भाषण भी नहीं दे रहे थे, वो तो पढ़ रहे थे, बांच रहे थे। वो, जो पहले से ही उर्दू में लिखा हुआ था, जो कई लोगों के दिमाग की समझदारी और हाथों की साझेदारी का अंजाम था और मम्मी-बेटा के दो जोड़ा हाथों से ‘ओके’ किया हुआ था।
वो चारो तरफ से ढके-मुंदे थे, क्योंकि इस मुल्क के प्रधानमंत्री को हमेशा हमले का खतरा रहता है। उन्हें चार लोग लगातार घेरे थे। ऐसा लगता था कि वो अपने मन से कहीं और जाना चाहते हैं लेकिन सफारी सूट पहने ये चार लोग उन्हें वहीं ले जा रहे थे, जहां उन्हें ले जाने के लिए कहा गया है। उनके बायें-दायें दो आदमी खड़े थे और लगातार अपनी खोपड़ी बांये-दायें करते हुए कुछ भांप से रहे थे। उनके दो कदम पीछे दो और आदमी ख़ड़े थे, उनकी खोपड़ी तो और ज्यादा घूम रही थी, वो बीच-बीच में आसमान की तरफ भी देख लेते थे, उनके दो कदम और पीछे दो और आदमी खड़े हुए थे जो दूरबीन से पता नहीं किसे ताड़ रहे थे। ऐसा लग रहा था कि ये सब आदमी बहुत डरे हुए हैं, सहमे हुए हैं, उनकी हरकत से तो ऐसा ही लग रहा था कि या तो इन सफारी सूटधारियों को खतरा है या उस आदमी को जिसे वो नीचे से अपने साये में इस ठिकाने तक ले आए हैं। पूरे माहौल में एक डर सा तारी था, डर, डर और डर। सब एक दूसरे को कनखियों से देख रहे थे। डिपर की तरह आंखें मिचमिचा रहे थे। हंसना तो बिल्कुल मना था। लग रहा था कि सब एक दूसरे से डरे हुए हैं या उससे डरे हुए हैं जो दिखाई नहीं दे रहा। हां, वो जो थे, वो हमेशा की तरह नीली पगड़ी पहने थे और उससे मेल खाती जैकेट। वो एक शीशे के घेरे में बंद थे। कुछ बोले चले जा रहे थे, बांचते चले जा रहे थे, ये देखे बगैर कि उन्हें सुना भी जा रहा है या नहीं? ये देखे बगैर कि उन्हें सुनते हुए लोगों के चेहरों पर उतार-चढाव कैसा आ रहा है? वैसे उन्हें ये देखना भी नहीं था क्योंकि इसीलिए वो उन लोगों से काफी दूर और ऊंचाई पर ले जाए गए थे। बास को पता है कि वो सेंसिटव पर्सन हैं, सच्चा बंदा है, दीन को देख दीन होने वाला है, इसलिए उसे लोगों के चेहरों से दूर रखो, उसे लोगों के चेहरे न पढ़ने दो, अभी जरूरत बाकी है, कुंवर को परफ्केट और मेच्योर होने में अभी वक्त है। बहराहल, वो शीशे के घेरे के पीछे से बीच-बीच में मुट्ठी तानते, बांहें फड़काते जैसे दिखते थे लेकिन ये हमारी गलतफहमी थी, वो ऐसा इसलिए कर रहे थे कि उनके कुर्ते की बाहें कुछ बड़ी थीं और डायस पर सामने धरे पन्नों में उर्दू के हरफ डिस्टर्ब हो जाते थे।
हम सोच रहे थे कि अगर लालकिले की प्राचीर पर वो न होते तो? अगर हमारे दुल्लर चच्चू होते, तो? चलो, दुल्लर चच्चू न सही, बबोल चच्चू होते, तो? मोहन लाल नाऊ होते तो? या बिल्लन मियां होते, तो? चारो लोग ठीकठाक उर्दू बांच सकते हैं, पुराने जमाने के वर्नाक्युलर स्कूल के पढ़े हैं। मोहन लाल बाबा को छोड़ दें तो सबकी आवाज भी ठीक-ठाक, बुलंद। गांव की रामलीला में तब लाउडस्पीकर कहां होते थे? कद-काठी हुंकारी और कुर्ता-पाजामा के साथ कोसा की पगड़ी में चारो क्या जमते हैं। मैं सोच रहा था कि अच्छा अगर वो वाकई न होते और लाल किले की प्राचीर से दुल्लर चच्चू किसी और का लिखा भाषण बांच कर वापस गांव लौट जाते तो क्या मुल्क कमजोर हो जाता? चलौ दुल्लर चच्चू न सही बबोल चच्चू होते और यही भाषण लाल किले के माइक पर फेरा देते तो क्या आईएसआई की हरकतें तेज हो जातीं? अमेरिका यूरेनियम देने से इनकार कर देता? क्या हम सार्क देशों के मुखिया न रह जाते? …और हो सकता है कि वो वाकई न रहे हों। उनका सेकेंड यानी हमशक्ल रहा हो। दरअसल सवाल सिक्योरिटी और आतंकवादी खतरे का है। भारत का प्रधानमंत्री कुर्सी की कसम खाते ही आतंकवादी हमले की जद में आ जाता है। बड़े मुल्कों में सब जगह होता है, वहां एकाध नहीं कई हमशक्ल होते हैं। वैसे भी हम अब बड़े मुल्क हो गए हैं, 80 रुपये किलो दाल कोई छोटा-मोटा मुल्क खा सकता है? तीन हजार करोड़ सिर्फ खेल में कोई बड़ा मुल्क ही बहा सकता है। हमें तो शक हो रहा है कि लाल किले पर वही थे। वो नहीं हो सकते, उनके बारे में तो सुनते हैं कि वो बड़े खुद्दार टाइप के हैं। फिर कल तो वो काफी एक्टिव थे तो आज सबेरे-सबेरे कैसे लाल किला पहुंच सकते थे, इतनी जल्दी तो थक जाते हैं। हम तो कल ही काफी डर रहे थे कि आज इतनी मेहनत कर रहे हैं, मीटिंग पर मीटिंग कर रहे हैं, कल सबेरे लाल किला पहुंच भी पाएंगे?
ये हमारा नहीं आफीशियल वर्जन है। बस 10-12 दिन पहले की बात है। आपको याद है कि संसद का मानसून सत्र शुरू होने से पहले लोकसभा की अध्यक्ष मीरा कुमार ने सर्वदलीय मीटिंग बुलाई थी। आप कहेंगे या कहेंगी कि इसमें याद रखने वाली बात क्या है? जब भी सत्र शुरू होता है, अध्यक्ष की तरफ से सर्वदलीय मीटिंग तो बुलाई ही जाती है। क्या आपको याद है कि उस सर्वदलीय मीटिंग में देश के प्रधानमंत्री मौजूद ही नहीं थे। अब आप मेरी बात पर भरोसा नहीं करेंगे कि लोकसभा अध्यक्ष सर्वदलीय मीटिंग बुलायें और प्रधानमंत्री उसमें गैर मौजूद रहें। गैरमौजूद रहना तो विपक्ष का काम है, लेकिन ऐसा हुआ था, क्यों? क्योंकि उसके एक दिन पहले राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ चली मीटिंग में शिरकत के चलते वो थक गए थे। ऐसा आफीशियली कहा गया था। ये बताने की जरूरत भी नहीं पड़ती अगर लोकसभा अध्यक्ष ने ये जानकारी नहीं दी होती कि पीएम बीमार होने के कारण सर्वदलीय मीटिंग में नहीं आए। उनके ऐसा कहते ही पीएम के मीडिया सलाहकार ने आनन फानन में एक बयान जारी किया, जिसमें कहा गया…वो बीमार नहीं, थके हुए हैं। फिर जोर देकर कहा गया कि ये कहना ठीक नहीं है कि पीएम बीमारी के कारण सर्वदलीय मीटिंग में नहीं शामिल हुए, दरअसल वो थके हुए हैं।
अगर वो थके होने के कारण सर्वदलीय मीटिंग में नहीं शामिल हुए तो संसद के मानसून सत्र की सेहत पर क्या असर पड़ा?
अगर वो थके होने के कारण लाल किले की प्राचीर से भाषण नहीं बांचते तो इस मुल्क की थकी हुई सेहत पर क्या असर पड़ता?
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